टूट रहे क्यों एक-एक कर
सदियों के संबंध।
सुबह न आती पहले जैसी
आज मिलाने हाथ
धूप न देती मुस्कानें में
पखुरियों का साथ,
प्राणवायु पर नए दौर का
यह कैसा प्रतिबंध।
पनप रहे क्यों हर आँगन में
कई-कई परिवार
रोज खड़ी हो जाती है क्यों
नई-नई दीवार
भूल रहे सब धीरे-धीरे
रिश्तों का अनुबंध।
गाँव-गाँव में बहती थी जो
शीतल शुद्ध बयार
सबके मन को मोह रहा था
सब के मन का प्यार
किसने अपने हाथों लूटी
मंजरियों की गंध।
कहाँ गई वह कोइलिया की
सहज सुरीली तान
महुए की मीठी मादकता
चंपा की मुस्कान
चलती थी जो चुहल चातुरी
पनघट पर निर्बंध।